गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

मयस्सर डोर से
फिर एक मोती झड़ रहा है ,
तारीखों के जीने से
दिसम्बर उतर रहा है |

कुछ चेहरे घटे , चंद यादें जुड़ीं
गए वक़्त में, 
उम्र का पंछी नित दूर और दूर
उड़ रहा है |...

गुनगुनी धूप और ठिठुरती रातें
जाड़ो की,
गुजरे लम्हों पर झीना-झीना
पर्दा गिर रहा है।
फिर एक दिसम्बर गुजर रहा है

मिट्टी का जिस्म
एक दिन मिट्टी में ही मिलेगा ,
मिट्टी का पुतला
किस बात पर अकड़ रहा है |

जायका लिया नहीं
और फिसल रही जिन्दगी ,
आसमां समेटता वक़्त
बादल बन उड़ रहा है |

...फिर दिसम्बर गुज़र रहा है।

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