शनिवार, 6 मई 2017

*इतवारी टटका*

गर्मी की छुट्टी में समर कैंप नहीं होते थे ,
पुरानी चादर से छत पर ही टेंट बना लेते थे ,
क्या ज़माना था जब ऊंगली से लकीर खींच बंटवारा हो जाता था ,

घर छोटा ही सही पर प्यार से गुजारा हो जाता था।

कंचे और गोटियों से खजाने भरे जाते थे ,
कान की गर्मी से वज़ीर , चोर पकड़ लाते थे ,
सांप सीढ़ी गिरना और संभलना सिखलाता था ,
कैरम घर की रानी की अहमियत बतलाता था,

घर छोटा ही सही पर प्यार से गुजारा हो जाता था।

पुरानी पोलिश की डिब्बी तराजू बन जाती थी ,
नीम की निंबोली आम बनकर बिकती थी ,
बिना किसी ज़द्दोज़हद के नाप तोल सीख लेते थे ,
साथ साथ छोटों को भी हिसाब किताब सिखा देते  थे ,
माचिस की डिब्बी से सोफा सेट बनाया जाता था ,
पुराने बल्ब में मनीप्लान्ट भी सजाया जाता था ,

घर छोटा ही सही पर प्यार से गुजारा हो जाता था।

कापी के खाली पन्नो से रफ बुक बनाई जाती थी,
बची हुई कतरन से गुडिया सजाई जाती थी ,
रात में नानी से भूत की कहानी सुनते थे ,
डर भगाने के लिये हनुमान चालिसा पढते थे,
स्लो मोशन सीन करने  की कोशिश करते थे ,
सर्कस के जोकर की भी  नकल उतारते थे ,
सीक्रेट कोड ताली और सीटी से बनाया जाता था ,

घर छोटा ही सही पर प्यार से गुजारा हो जाता था।

कोयल की आवाज निकाल कर उसे चिढ़ाते थे,
घोंसले में अंडे देखने पेड पर चढ जाते थे ,
गरमी की छुट्टी में हम बड़ा मजा करते थे ,
बिना होलिडे होमवर्क के भी काफी कुछ सीख लेते थे ,
शाम को साथ बैठ कर हमलोग देखा जाता था ,

घर छोटा ही सही पर प्यार से गुजारा हो जाता था।

"मेरी उम्र के बहुत लोगों को इस कविता में अपने बचपन का प्रतिबिंब दिखाई देगा, आज की पीढ़ी *अचंभित* होकर पढ़ ले शायद।"

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