रविवार, 13 मार्च 2016

सनातन गोस्वामी का नियम था गिरि गोवर्द्धन की नित्य परिक्रमा करना, अब उनकी अवस्था 90 वर्ष की हो गयी थी, नियम पालन मुश्किल हो गया था फिर भी वे किसी प्रकार निबाहे जा रहे थे. एक बार वे परिक्रमा करते हुए लड़खड़ाकर गिर पड़े, एक गोप-बालक ने उन्हें पकड़ कर उठाया और कहा- "बाबा, तो पै सात कोस की गोवर्द्धन परिक्रमा अबनाँय हय सके. परिक्रमा को नियम छोड़ दे."बालक के स्पर्श से उन्हें कम्प हो आया. उसका मधुरकण्ठस्वर बहुत देर तक उनके कान मे गूंजता रहा. पर उन्होंने उसकी बात पर ध्यान न दियां परिक्रमा जारी रखी, एकबार फिर वे परिक्रमा मार्ग पर गिर पड़े. दैवयोग से वही बालक फिर सामने आया. उन्हें उठाते हुए बोला-"बाबा, तू बूढ़ो हय गयौ है. तऊ माने नाँय परिक्रमा किये बिना. ठाकुर प्रेम ते रीझें, परिश्रम ते नाँय."फिर भी बाबा परिक्रमा करते रहे. पर वे एक संकटमें पड़ गये. बालक की मधुर मूर्ति उनके हृदय मेंगड़ कर रह गयी थी. उसकी स्नेहमयी चितवन उनसेभुलायी नहीं जा रही थी. वे ध्यान में बैठते तोभी उसी की छबि उनकी आँखों के सामने नाचने लगतीथी. खाते-पीते, सोंते-जागते हर समय उसी की यादआती रहती थी. एक दिन जब वे उसकी याद में खोये हुए थे, उनके मन में सहसा एक स्पंदन हुआ, एक नयीस्फूर्ति हुई. वे सोचने लगे-एक साधारण व्रजवासीबालक से मेरा इतना लगाव! उसमें इतनी शक्ति किमुझ वयोवृद्ध वैरागी के मन को भीइतना वश में कर ले कि मैं अपने इष्ट तक का ध्यान न कर सकूँ.नहीं, वह कोई साधारण बालकनहीं हो सकता, जिसका इतना आकर्षण है. तोक्या वे मेरे प्रभु मदनगोपाल ही हैं, जो यहलीला कर रहे हैं?एकबार फिर यदि वह बालक मिल जाय तो मैं सारा रहस्य जाने वगैरन छोड़ूँ. संयोगवश एक दिन परिक्रमा करते समय वह मिल गया.फिर परिक्रमा का नियम छोड़ देने का वही आग्रहकरना शुरू किया. सनातन गोस्वामी ने उसके चरणपकड़कर अपना सिर उन पर रख दिया और लगे आर्त भरे स्वर मेंकहने लगे-"प्रभु, अब छल न करो. स्वरूप में प्रकट होकर बताओ मैं क्याकरूँ. गिरिराज मेरे प्राण हैं. गिरिराज परिक्रमा मेरे प्राणोंकी संजीवनी है.प्राण रहते इसे कैसे छोड़ दूं?"भक्त-वत्सल प्रभु सनातन गोस्वामीकी निष्ठा देखकर प्रसन्न हुए. पर परिक्रमा मेंउनका कष्ट देखकर वे दु:खी हुए बिनाभी नहीं रह सकते थे. उन्हेंभक्त का कष्ट दूर करना था, उसके नियम कीरक्षा भी करनी थीऔर इसका उपाय करने में देर भी क्याकरनी थी? सनातनगोस्वामी ने जैसे हीअपनी बात कह चरणों से सिर उठाकरउनकी ओर देखा उत्तर के लिए, उस बालककी जगह मदनगोपाल खड़े थे. वे अपना दाहिनाचरण एक गिरिराज शिला पर रखे थे. उनके मुखारविन्द पर मधुरस्मित थी, नेत्रों में करुणा झलकरही थीं वे कह रहे थे-"सनातन, तुम्हारा कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता.तुम गिरिराज परिक्रमा का अपना नियम नहीं छोड़नाचाहते तो इस गिरिराज शिला की परिक्रमा कर लियाकरो. इस पर मेरा चरण-चिन्ह अंकित है. इसकीपरिक्रमा करने से तुम्हारी गिरिराज परिक्रमा हो जायाकरेगी."इतना कह मदनगोपाल अन्तर्धान हो गये. सनातनगोस्वामी मदनगोपाल-चरणान्कित उस शिला कोभक्तिपूर्वक सिर पर रखकर अपनी कुटिया में गये.उसका अभिषेक किया और नित्य उसकी परिक्रमाकरने लगे. आज भी मदगोपाल के चरणचिन्हयुक्तवह शिला वृन्दावन में श्रीराधादामोदर के मन्दिर मेंविद्यमान हैं,ऐसी मान्यता है कि राधा दामोदर मंदिरकी चार परिक्रमा लगाने पर गिरिराज गोवर्धनकी परिक्रमा का फल मिल जाता है.आजभी कार्तिक सेवा में श्रद्धालु बड़े भाव से मंदिरकी परिक्रमा करते है.जय श्रीगिरिराज गोवर्धन की

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