मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

Gazal likhane Wale Ko Dil Se Salam

एक ग़ज़ल
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ख़ुश रहे वो भी, जो कहते हैं दुआ कुछ भी नहीं

बूंद में  अटकी  हवा  है, बुलबुला कुछ भी नहीं
किस क़दर मग़रूर है, जैसे ख़ुदा कुछ भी नहीं

हम  किसी  के ऐब  का  सागर खंगालें किसलिए
आज तक इन ग़ोताखोरों को मिला कुछ भी नहीं

मुठ्ठी  बांधे  आए  थे  हम,  मुठ्ठी  खोले  जाएंगे
ये समझ लो तो समझने को बचा कुछ भी नहीं

हौसला,   पक्का,   इरादा और मंज़िल   का   जुनूँ
इनके आगे मुश्किलों का सिलसिला कुछ भी नहीं

आपको जाना है आगे अपनी मंज़िल की तरफ
पीछे  मुड़  कर  देखने से फायदा कुछ भी नहीं

व्यक्ति पूजा की बदौलत कुछ फ़रिश्ते बन गए 
असलियत में आदमियत से बड़ा कुछ भी नहीं

होने   को  लुकमान  जैसे  हो  गए  कितने हक़ीम
मग़रुरियत के मर्ज़ की लेकिन दवा कुछ भी नहीं

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