शनिवार, 11 जून 2016

लोग सच कहते हैं - औरतें अजीब होतीं हैरात भर सोती नहीं पूराथोड़ा थोड़ा जागती रहतीं हैनींद की स्याही में उंगलियां डुबो कर दिन की बही लिखतीं।टटोलती रहतीं हैदरवाजों की कुंडियाबच्चों की चादर पति का मनऔर जब जागती सुबह तो पूरा नहीं जागती।नींद में ही भागतीं हैसच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।हवा की तरह घूमतीं, घर बाहर...टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ गमलों में रोज बो देती आशाऐपुराने अजीब से गाने गुनगुनातींऔर चल देतीं फिरएक नये दिन के मुकाबिलपहन कर फिर वही सीमायें खुद से दूर हो कर हीसब के करीब होतीं हैंऔरतें सच में अजीब होतीं हैं ।कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतींबीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं चुल्हे पे चढ़ा दूध...कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब बचपन में खोई गुडिया,जवानी में खोए पलाश,मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,छिपन-छिपाई के ठिकाने वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...सहेलियों से लिएदिये चुकाए हिसाब बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताबखोलती बंद करती खिड़कियाँ क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या ?खाती रहती झिङकियाँन शौक से जीती है ,न ठीक से मरती हैकोई काम ढ़ंग से नहीं करती हैसच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।कितनी बार देखी है...मेकअप लगाये,चेहरे के नील छिपाएवो कांस्टेबल लडकी,वो ब्यूटीशियन, वो भाभी, वो दीदी...चप्पल के टूटे स्ट्रैप कोसाड़ी के फाल से छिपातीवो अनुशासन प्रिय टीचरऔर कभी दिखही जाती हैकॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,नाखूनों से सूखा आटा झाडते,सुबह जल्दी में नहाईअस्पताल आई वो लेडी डॉक्टरदिन अक्सर गुजरता है शहादत में रात फिर से सलीब होती है...सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।सूखे मौसम में बारिशों कोयाद कर के रोतीं हैं उम्र भर हथेलियों में तितलियां संजोतीं हैंऔर जब एक दिनबूंदें सचमुच बरस जातीं हैंहवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैंतो ये सूखे कपड़ों, अचार ,पापड़ बच्चों और सब दुनिया को भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।खुशी के एक आश्वासन परपूरा पूरा जीवन काट देतीं है ।अनगिनत खाईयों कोअनगिनत पुलो से पाट देतीं है.सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।ऐसा कोई करता है क्या?रस्मों के पहाड़ों जंगलों में नदी की तरह बहती...कोंपल की तरह फूटती...जिन्दगी की आँख सेदिन रात इस तरहऔर कोई झरता है क्या ?ऐसा कोई करता है क्या ?(हमारे जीवन में ख़ुशी, समर्पण और प्रेम बरसाने वाली महिलाओं को सादर समर्पित)

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपको यह कविता इतनी अच्छी लगी कि आपने इसे अपने ब्लाॅग में जगह दी बहुत धन्यवाद
    सभी सुधी पाठकों को भी धन्यवाद
    ये कविता मैने लिखी थी इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन के महिला दिवस के आयोजन के उपलक्ष में और उसी समारोह में पढ़ी भी थी बाद में 11अप्रैल को फेसबुक पर पोस्ट कर दी जो कई मित्रों ने शेयर भी की
    अब इसे अक्सर वाट्स ऐप या फेसबुक पर अनाम पाती हूँ
    इसकी लेखिका कोई बड़ा नाम न सही पर अनाम भी नहीं
    मेरा नाम डाॅ.ज्योत्स्ना मिश्रा है मैं दिल्ली में रहती हूँ और एक स्त्री रोग विशेषज्ञ हूँ ,इसलिए हर क्षेत्र की स्त्रियों को बहुत पास से देखा है

    जवाब देंहटाएं
  2. डॉ ज्योत्सना आपने बहुत ही अच्छा लिखा है। चूंकि लय की बंदिश नहीं है। इसलिए इसे गुलज़ार के नाम पर सर्कुलेट किया जा रहा है सोशल मीडिया पर।

    जवाब देंहटाएं