मंगलवार, 10 मई 2016

जब सुदामा अपने घर लौटे तो इतना मिल चुका था जिसकी आशा न थी; बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख।पुराणों में कहा जाता है कि वह अक्षय तृतीता का दिन था. श्रीकृष्ण की कृपा से दरिद्र सुदामा अक्षय धन संपदा के स्वामी बने थे. यह कथा एक विशेष उल्लेख करती है. हम अक्षय तृतीया को केवल स्वर्ण आभूषण खरीदने का दिन मान लेते हैं. भगवान ने सुदामा की लाज रखी. सुदामा आए तो थे याचना करने. मित्र के सामने याचना करना तो हीन बनाने की बात ही है. बराबरी का भाव खत्म हो जाता. भगवान ने प्रेरणा दी और सुदामा ने कुछ नहीं मांगा. भगवान ने उन्हें विदाई में कुछ दिया भी नहीं. बस बच्चों के लिए कुछ मिठाइयां और उपहार देकर विदा किया. स्वर्ण का दान नहीं किया भगवान ने.सुदामा जब अपने घर लौटे तो उनका घर सुंदर भवन बन गया. अन्न के भंडार भर गए. गौशाला में गाएं आ गईं. हर प्रकार से सुखी जीवन का प्रबंध कर दिया. भगवान ने दान किया उन वस्तुओं का जिनकी एक निर्धन विप्र को आवश्यकता थी. इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल के कलश का दान, खड़ाऊं या चप्पलों का दान, छाते का दान, शीतलता प्रदान करने वाली चीजों का दान करने को कहा जाता है.भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा के चावल खाए थे उनकी दरिद्रता की पीड़ा को स्वयं महसूस किया था इसलिए वह चीज दान की जिसकी सुदामा को आवश्यकता थी. उन्होंने युधिष्ठिर को भी अक्षय पात्र इसीलिए दान किया क्योंकि उसकी ही आवश्यकता थी.पांडव जब बनवास को जाने लगे तो श्रीकृष्ण को चिंता हुई कि कहीं ये महावीर इस समय को भोजनके लिए अन्न उपजाने और गृहस्थी जमाने में न करने लगें. साथ ही श्रीकृष्ण को आभास था कि दुर्योधन ब्राह्मणों को पांडवों के पास सेवा-सत्कार के लिए भेजता रहेगा ताकि उनके भोजन एवं दान आदि के लिए पांडव अन्न उपजाने में फंसे रहें. भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को एक एक अक्षय पात्र प्रदान किया था. अक्षय पात्र में से आवश्यकता के अनुसार अन्न निकाला जा सकता था. स्वर्ण नहीं निकलता था उससे.  इसलिए अक्षय पुण्य प्राप्त करने के लिए जरूरी नहीं है कि स्वर्ण खरीदें, बल्कि अन्नदान करके, गरीब, जरूरतमंद को भोजन कराकर पुण्य धन का संग्रह करें. इस लोक में खरीदा सोना आपके साथ नहीं जाएगा, साथ जाएगा तो वह पुण्य.☘प्रभु शरणम्☘प्रभु के शरणम् में रहिए।प्रभु के चरणों में रहिये।।वही अक्षय पुण्य है। भगवद्भक्त के लिए रोज़ अक्षय तृतीया है।

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