सोमवार, 9 मई 2016

बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए ,बिक गयी है धरती, गगन बिक न जाएचाँद पर भी बिकने लगी है जमीं .,डर है की सूरज की तपन बिक न जाए ,हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,डर है की कहीं धर्म बिक न जाए ,देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को ,कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए ,हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता ,कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए ,सरे आम बिकने लगे अब तो सांसद ,डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए ,आदमी मरा तो भी आँखें खुली हुई हैंडरता है मुर्दा , कहीं कफ़न बिक न जाए।

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